RAJA RAM MOHAN ROY
Raja ram Mohan roy
राजा राम मोहन राय की शिक्षा-दीक्षा पटना और बनारस में हुई। पटना में उन्होनें फारसी, अरबी और इस्लामी तत्व मीमांसा में दक्षता प्राप्त की, तथा बनारस में उन्होनें प्राचीन धर्मग्रन्थों का संस्कृत में अध्ययन किया। उन्हें धार्मिक सत्य की उत्कट जिज्ञासा थी। उन्होनें तिब्बत के लामा बौद्ध धर्म का भी गहन अध्ययन किया। इसके साथ ही वे दस भाषाओं में पूर्ण पारंगत थे।
1803 ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होनें ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करना शुरू किया। किंतु 1814 ई. में उन्होनें कंपनी की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोलकाता में रहना शुरू किया। वहाँ वे धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधार संबंधी कार्यो में व्यस्त हो गए।
1816 ई. में उन्होनें "आत्मीय सभा" की स्थापना की। 1818 ई. में उन्होनें सती प्रथा उन्मूलन हेतु प्रयास प्रारंभ किया और 4 दिसंबर 1829 ई. को उनके प्रयासों के फलस्वरूप भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक ने सती प्रथा उन्मूलन कानून की घोषणा की। 18 अगस्त 1828 ई. में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की।
राजा राम मोहन राय ने सामाजिक बुराईयों की निंदा की और रूढ़िवाद के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद किया। उन्होनें बहुविवाह की निंदा की, विधवा के पुनर्विवाह के लिए प्रचार किया और अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया।
1830 ई. में उन्होनें इंग्लैंड की यात्रा कि। उस समय के दिल्ली में स्थित नाममात्र के मुग़ल सम्राट ने उन्हें "राजा" की उपाधि से विभूषित किया क्योंकि उन्होनें ब्रिटेन के सम्राट को मुग़ल सम्राट के कष्टों और दुखो से अवगत कराया।
राजा राम मोहन राय को C.F.Andrews ने उन्हें "समस्त विश्व आंदोलन का अगुवा" तथा बेंथम ने उन्हें "मानवता की सेवा का प्रियतम सहयोगी" की संज्ञा दी। इसके साथ ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने "विश्व समाज के अग्रदूत" कहा।
राजा राम मोहन राय की मृत्यु 27 दिसंबर 1833 ई. को इंगलैंड के ब्रिस्टल शहर में हुई।
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